Encryption Kutankan (कूटांकन)
अनादि काल से ही मानव अपनी भावनाओं एवं विचारों को संकेतों एवं भाषा के द्वारा अभिव्यक्त करता रहा है। गोपनीय संकेत सम्प्रेषित करने के लिए विभिन्न शब्दावली का प्रयोग कूट भाषा कहलाती है। देवभाषा संस्कृत तथा मातृभाषा हिन्दी के देवनागरी लिपि से निर्मित शब्दों को अंकों तथा संख्याओं के रूप में व्यक्त करना ही कूटांक कहा जाता है। शब्द कूटांक का उपयोग गणित एवं ज्योतिषादि ग्रंथों में भरपूर किया गया है।
कूटांक के कई भेद हो सकते हैं परन्तु देवनागरी लिपि के मुख्य तीन भेद हैं —
(1) शब्द कूटांक
(2) व्यंजन कूटांक
(3) वर्ण कूटांक
शब्द कूटांक :-
देवनागरी लिपि से निर्मित शब्दों को अंकों तथा संख्याओं के रूप में व्यक्त करना ही कूटांक कहा जाता है। शब्द कूटांक के माध्यम से रचित पद्य (श्लोक) द्वारा सर्वसाधारण मनुष्य भी बड़ी से बड़ी संख्याओं को सरलता से मुखस्थ कर सकता है। किसी अंक अथवा संख्या विशेष के स्थान पर विशिष्ट शब्द अथवा उसके समानार्थी शब्द का उपयोग “शब्द कूटांक” के श्रेणी में आता है। गणित एवं ज्योतिष के ग्रंथों में प्रचलित शब्द कूटांक की सूची निम्नवत् है :-
0 :- शून्यम्, पूर्ण, वियत्, एवं आकाश के नाम ( ख, अभ्र, नभ, गगन, …)
1 :- एक, रुप, पृथ्वी के नाम (भू, कु, अवनि, महि, ….), चन्द्रमा के नाम (चंद्र, इन्दु, शशि, ….), क्षमा, उक्ता
2 :- द्वौ, युगल, युग्म, युत, नेत्र के नाम (नेत्र, नयन, लोचन, अक्षि, दृक,….), यम के नाम (यम, अतंक, ….), आश्विनौ, दस्र, पक्ष, हाथ के नाम (हस्त, कर, बाहु,…), अत्ययुक्ता
3 :- त्रीणी, लोक, राम, गुण, क्रम, शिवनेत्र में अग्नि के नाम (हुताशन, अग्नि, अनल, पावक, दहन, वह्नि, शिखि,….), मध्या
4 :- चत्वारि, युग, वेद, श्रुति, कृत, अष्टका, समुद्र के नाम (सागर, अब्धि, जलधि, अम्बुधि, अर्णव,…), प्रतिष्ठा
5 :- पाँच, प्राण, इन्द्रिय, तत्व, भूत, विषय, वाण के नाम (शर, इषु, सायक, अक्ष, ….), अक्षि, अर्थ, सुप्रतिष्ठा
6 :- षट्, रस, अंग, ऋतु, ऊनशैल, अर्त्तव, तर्क, शत्रु के नाम (अरि, रिपु,….), गायत्री
7 :- सप्त, स्वर, अद्रि, ऋषि, मुनि, शैल के नाम (अचल, नग, कुभृत, गिरि, भूभृत, भूधर, क्षमाधर,…), अश्व के नाम (तुरग, हय, …) उष्णिक
8 :- अष्ट, वसु, गज के नाम (दन्ति, करी, कुंजर, …), सर्प के नाम (नाग, अहि, वारण, व्याल, सिन्धुर, भुजंग, इभा, कुम्भि, …), द्विज, अनुष्टम्
9 :- नव, नन्द, अंक, गो, ग्रह, खेचर, छिद्र के नाम (छिद्र, रन्ध्र, विवर, अंतर, ….), वृहती
10 :- दश, पंक्ति, दिशा के नाम (दिक्, काष्ठा, ….)
11 :- एकादश, शिव के नाम (रुद्र, ईस, मदनारि, भव, …), भग, त्रिष्टुप
12 :- द्वादश, सूर्य के नाम (रवि, अर्क, सूर्य, दिवाकर, दिनकर, आदित्य, मित्र, ….), जगति
13 :- त्रयोदश, विश्वदेव के नाम (विश्व, ..), ऊनशक्र, अतिजगति
14 :- चतुर्दश, मनु, इन्द्र के नाम (शक्र, इन्द्र, सुरराज, …), शक्वरि
15 :- पंचदश, दिन, तिथि,.. … अतिशक्वरि
16 :- षोडश, अष्टि, राजा के नाम (नृप, भूप,…), संस्कार
17 :- सप्तदश, अत्यष्टि, ऊनधृति, घन
18 :- अष्टादश, धृति, पुराण
19 :- ऊनविंशति, अतिधृति, (विधृति)
20 :- विंशति, कृति, नख के नाम (नख, करज,…)
21 :- एकविंशति, मूर्छना, स्वर्ग, प्रकृति
22 :- द्वाविंशति, आकृति
23 :- त्रयोविंशति, विकृति
24 :- चतुविंशति, जिन, सिद्ध, अर्हत्, संकृति
25 :- पंचविंशति, तत्वा, अतिकृति, अभिकृति
26 :- षड्विंशति, उत्कृति
27 :- सप्तविंशति, नक्षत्र के नाम (भ, नक्षत्र, तारा,..)
28 :- अष्टविंशति
29 :- ऊनत्रिंशत
30 :- त्रिंशत्
31 :- एकत्रिंशत, ऊनरद्
32 :- द्वात्रिशंत, दांत के नाम (दन्त, रद्, दशन, ….)
33 :- त्रयत्रिंशत्, देवता के नाम (विवुध, देव, अमर, सुर, …)
360 :- भांश, चक्रांश, भगणांश 720 तिथिभोग 800 भभोग
1800 :- एकशशिकला
21600 :- चक्रकला, भगणकला, अचक्रकला, अहोरात्रसु
गणित के सूत्र “अंकानां वामतो गतिः” का उपयोग किया जाता है
अनुप्रयोग :-
(1)
भास्कराचार्य (1114 ई. से 1185 ई.) ने अपने ग्रन्थ में बड़ी-बड़ी संख्याओं को मुखस्थ करने के लिए शब्द-कूटांक का उपयोग उपर्युक्त शब्दावली का प्रयोग करते हुए किया है। लीलावती के द्वितीय खण्ड में वृत्त का विचार करते हुए कहा कि —
व्यासे भनन्दाग्नि हते विभक्ते खबाणसूर्यैः परिधिः स सूक्ष्मः।
द्वाविंशतिघ्ने विहृतेऽथ शैले स्थूलोऽथवा स्यात् व्यवहारयोग्यः।। 41।।
अर्थात् —
“व्यास में भनन्दाग्नि अर्थात् 3 9 27 (भ = 27, नन्द = 9, अग्नि = 3) का गुणा करके तथा खबाणसूर्यै अर्थात् 12 5 0 (ख = 0, बाण = 5, सूर्य = 12) से विभाजित करने पर वृत्त की सूक्ष्म परिधि प्राप्त हो जाती है। व्यास में 22 से गुणा करके शैल अर्थात् 7 से विभाजित करने पर व्यवहार योग्य स्थूल परिधि प्राप्त होती है।”
(2)
भास्कराचार्य ने सिद्धांत शिरोमणि के काल मान अध्याय में कहा है कि —
खखाभ्रदन्तसागरैर्युगाग्नियुग्मयभूगुणैः।
क्रमेण सूर्यवत्सरैः कृतादयो युगाडघ्रयः ।। 21।।
अर्थात् —
सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलियुग में खखाभ्रदन्तसागरै अर्थात् 4 32 0 0 0 (ख = 0, ख = 0, अभ्र = 0, दन्त = 32, सागर = 4) के क्रमशः युग अर्थात् 4 गुना, अग्नि अर्थात् 3 गुना, युग्म अर्थात् 2 गुना एवं भू अर्थात् 1 गुना वर्ष होता है।
अर्थात् —
सतयुग = 1728000 वर्ष ( 432000 × 4)
द्वापरयुग = 1296000 वर्ष ( 432000 × 3)
त्रेतायुग = 864000 वर्ष ( 432000 × 2)
कलियुग = 432000 वर्ष ( 432000 × 1)
व्यंजन कूटांक :-
अंकों को देवनागरी वर्णमाला के व्यंजनों के रूप में अथवा व्यंजनों को अंकों के रूप में अभिव्यक्त करके गणित की गणनाओं से संबंधित जटिलताओं को अत्यंत सरल, सहज, मनोरंजक तथा बोधगम्य बनाया जा सकता है। अंकों को व्यंजनों के रूप में व्यक्त करना “व्यंजन कूटांक” कहलाता है। यह कटपयादि सूत्र के नाम से जाना जाता है, यह निम्नवत् है —
“कादि नव, टादि नव, पादि पंचक याद्याष्टक क्षः शून्यम् च”
अर्थात्
क आदि नव, ट आदि नव, प आदि पंच, य आदि अष्ट और क्ष शून्य है।
वर्ण कूटांकटांक
1 :- क ट प य
2 :- ख ठ फ र
3 :- ग ड ब ल
4 :- घ ढ भ व
5 :- ङ ण म श
6 :- च त ष
7 :- छ थ स
8 :- ज द ह
9 :- झ ध
0 :- ञ न क्ष (क्षुद्र)
उपर्युक्त विवेचन से सुस्पष्ट है कि अर्द्धाक्षरों एवं मात्राओं को कूटांक के रूप में प्रयुक्त नहीं किया गया है।
कटपयवर्गभवैरिह पिण्डान्त्यैरक्षरैरंकाः
नञि च शून्यं श्रेयं तथा स्वरे केवले कथिताम ।
अनुप्रयोग :-
(1)
आवर्त दशमलव :-
(i) 1/7 का मान ज्ञात करने के लिए “केवलैः सप्तकं गुण्यात्” का प्रयोग किया जाता है। यहाँ पर “केवल” को कूटांक के रूप में प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है 1 4 3 ( क = 1, व = 4, ल = 3)। 143 में समान अंकों की संख्या जो कि मात्र 9 से बनी हो, का गुणा करने पर 1/7 से प्राप्त होने वाला आवर्त दशमलव प्राप्त हो जाता है।
1/7 = 143 × 999 = 0.142857 (यहाँ वैदिक गणित का 2 सूत्र उपयोग हुआ है प्रथम एकन्यूनेन पूर्वेण तथा दूसरा निखिलं नवतश्चरमं दशतः)
(ii) 1/13 का मान ज्ञात करने के लिए “कलौ क्षुद्रससैः” का प्रयोग किया जाता है। “कलौ” का अर्थ है “13” तथा “क्षुद्रससैः” का अर्थ है “077” (क्ष /क्षुद्र = 0, स = 7, स = 7)। अतः 077 में 999 से गुणा करने पर 1/13 का मान ज्ञात हो जाता है।
1/13 = 077 × 999 = 0.076923 (यहाँ वैदिक गणित का 2 सूत्र उपयोग हुआ है प्रथम एकन्यूनेन पूर्वेण तथा दूसरा निखिलं नवतश्चरमं दशतः)
(iii) 1/17 का मान ज्ञात करने के लिए “कंसे क्षामदाहखलैर्मलैः” का प्रयोग किया जाता है। “कंसे” का अभिप्राय “17” तथा क्षामदाहखलैर्मलैः का अर्थ है 05882353 ( क्ष = 0, म = 5, द = 8, ह = 8, ख = 2, ल = 3, म = 5, ल = 3)। अतः 05882353 को 99999999 से गुणा करने पर 1/17 का मान ज्ञात हो जाता है।
1/17 = 05882353 × 99999999 = 05882352 94117647 (यहाँ वैदिक गणित का 2 सूत्र उपयोग हुआ है प्रथम एकन्यूनेन पूर्वेण तथा दूसरा निखिलं नवतश्चरमं दशतः)
(2)
अधोलिखित श्लोक का वर्ण कूटांक की दृष्टि से विचार करें…..
“चन्द्रांशु चंद्रा धमकुंभिपाला।
आनूननून्ननन नुन्न नित्यम्।। “
व्यास = 1 आनूननून्ननन नुन्न नित्यम्
0000000000 1
परिधि = चन्द्रांशु चंद्रा धमकुंभिपाला
6 3 5 6 2 9 5 1 4 1 3
पाई = परिधि /व्यास
= 31415926526 /10000000000
= 3.1415926526
अर्थात – दशमलव के दस अंक तक पाई का मान इस श्लोक में दिया गया है।
वर्ण कूटांक :-
देवनागरी लिपि के आकार रहित व्यंजनों क् से म् को 1 से 25 तक की संख्याओं, य् से ह् तक 100 तक की गुणित संख्याओं के रूप में तथा स्वरों को दशघातीय संख्याओं के रूप में व्यक्त करना “वर्ण कूटांक” कहलाता है श्लोक निम्नवत् है —
वर्गाक्षराणि वर्गेऽवर्गेऽवर्गेाक्षराणि कात् ङ् मौ यः।
खद्विनवके स्वरा नव वर्गेऽवर्गेनवान्त्यवर्गे वा।।
अर्थात् —
इस श्लोक का भावार्थ है कि क् से प्रारंभ करके वर्ग अक्षरों को वर्ग स्थानों में और अवर्ग अक्षरों को अवर्ग स्थानों में प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार ङ् और म मिलकर (ङ् + म् ) म् होते हैं। वर्ग और अवर्ग स्थानों के नव के इन शून्यों को नव स्वर व्यक्त करते हैं। नव वर्ग स्थानों एवं अवर्ग स्थानों के पश्चात् अर्थात् इनसे अधिक स्थानों के उपयोग की आवश्यकता होने पर इन्हीं नव स्वरों का उपयोग करना चाहिए। इसको निम्नवत् अभिव्यक्त किया जा सकता है :-
शतपर्यन्त संख्यायें
क् ख् ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ ञ्
1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10
ट् ठ् ड् ढ् ण् त् थ् द् ध् न्
11, 12, 13, 14, 15, 16 , 17 , 18 , 19, 20
प् फ् ब् भ् म्
21, 22, 23, 24, 25,
य् र् ल् व् श् ष् स् ह्
30, 40, 50, 60, 70, 80, 90, 100
अइउण् । ऋलृक। एओङ्। ऐऔच।
अर्थात् —
अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ तथा औ नव स्वर हैं। इन स्वरों का उपयोग नव वर्ग और नव अवर्ग स्थानों को प्रकट करने के लिए करना है।
स्वर कूटांक
अ (1), इ (10 ²), उ (10 ³) ,
ऋ (10 ⁴), लृ (100000), ए (1000000)
ऐ (10000000), ओ (100000000),
औ (1000000000).
वर्ण-कूटांक का प्रयोग करते समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए —
(क) अर्द्धाक्षरों के मानों को जोड़ा जाता है।
(ख) किसी व्यंजन की मात्रा ही पूर्व प्रयुक्त अर्द्धाक्षर की मात्रा होती है।
(ग) दशघातीय संख्याओं का गुणन किया जाता है।
अनुप्रयोग :-
आर्यभट्ट (476 ई. से 540 ई.) ने आर्यभटीय के “दशगीतिका” प्रकरण में विभिन्न गणनाओं में प्रयुक्त होने वाली बड़ी-बड़ी संख्याओं को कूटांक रूप में अभिव्यक्त किया है।
विभिन्न ग्रहों के युग में भगणों की संख्या की चर्चा करते हुए आर्यभट्ट ने कहा है कि —
युगरविभगणाः ख्युघृ शशि चयगियिङुशुछ्लृ कुङि शिबुणलृख्षृ प्राक् ।
शनि ढुङिवध्व गुरू ख्रिच्युभ कुज भदिलझ्नुखृ भृगुबुद्धसौराः।। 1।।
युग में सूर्य के भगणों की संख्या ख्युघृ अर्थात्
{(ख् + य्) × उ + (घ् × ऋ)}
{(2 + 30) × 10,000 + (4 × 10,00,000)}
3,20,000 + 40,00,000
43,20,000
चंद्रमा की भगण संख्या चयगियिङशिबुणलृ
च् × अ + य् × अ + ग् × इ + य् × इ + ङ् × उ + श् + उ + (छ्+ल्) × ऋ
= 6 × 1 + 30 × 1 + 3 × 100 + 30 × 100 + 5 × 10, 000 + 70 × 10, 000 + (7 + 50) × 10, 00, 000
= 6 + 30 + 300 + 3, 000 + 50, 000 + 7, 00, 000 + 5, 70, 00, 000
= 577533336
कु अर्थात् पृथ्वी के पूर्व की ओर ङिशिबुणलृख्षृ
ङ् × इ + श् × इ + ब् × उ + ण् × लृ + (ख् + ष्) × ऋ
= 5 × 100 + 70 × 100 + 23 × 10000 + 15 × 100000000 + (2+80) × 1000000
= 500 + 7000 + 230000 + 1500000000 + 82000000
= 1582237500
शनि के भगणों की संख्या ढुङिवध्व
ढ् × उ + (ङ् +व) × इ + (घ् + व्) × अ
= 14 × 10000 + (5 + 60) × 100 + (4 + 60) × 1
= 140000 + 6500 + 64
= 146564
गुरू अथवा वृहस्पति की भगण संख्या ख्रिच्युभ
(ख् + र्) × इ + (च् + य्) × उ + भ् × अ
= (2 + 40) × 100 + (6 + 30) × 10000 + 24 × 1
= 4200 + 360000 + 24
= 364224
कुज अथवा मंगल के भगणों की संख्या भल्दिझ्नुखृ
भ् × अ + (द्+ ल्) × इ + (झ् + न्) × उ + ख् × ऋ
= 24 × 1 + (18 + 50) × 100 + (9+20) × 10000 + 2 × 1000000
= 24 + 6800 + 290000 + 2000000
= 2296824
भृगु अर्थात् शुक्र एवं बुद्ध के भगणों की संख्या सूर्य की भाँति होती है।
चंद्रोच्चं ज्रुष्खिध बुध सुगुशिथृन भृगु जषबिखुछृ शोषार्काः।
बुफिनच पातविलोमा बुधाह् न्यजार्कोदयाच्च लंकायाम्।। 2।।
चंद्रोच्च की भगण संख्या ज्रुष्खिध
(ज् + र्) × उ + (ष् + ख्) × इ + ध् × अ
= (8+40)× 10000 + (80+2) 100 + 19 × 1
= 480000 + 8200 + 19
= 488219
बुद्ध के शीघ्रोच्च की भगण संख्या सुगुशिथृन
स् × उ + ग् × उ + श् × इ + थ् × ऋ + न् × अ
= 90 × 10000 + 3 × 10000 + 70 × 100 + 17 × 1000000 + 20 × 1
= 900000 + 30000 + 7000 + 17000000 + 20
= 17937020
शुक्र के शीघ्रोच्च की भगण संख्या जषबिखुछृ
ज्× अ + ष × अ + ब × इ + ख × उ + छ × ऋ
= 8× 1 + 80 × 1 + 23 × 100 + 2 × 10000 + 7 × 1000000
= 8 + 80 + 2300 + 20000 + 7000000
= 7022388
शेष अर्थात् मंगल, गुरु एवं शनि के शीघ्रोच्च भगणों की संख्या सूर्य के भगणों की संख्या के समान होती है।
चंद्रपात के भगणों की संख्या विलोम अर्थात् पूर्व से पश्चिम की ओर बुफिनच अथवा
ब् ×उ + फ् × इ + न् + अ + च् × अ
= 23 × 10000 + 22 × 100 + 20 × 1 + 6 × 1
= 230000 + 2200 + 20 + 6
= 232226
ये भगण युग के आरंभ में बुद्ध के दिन लंका में सूर्योदय के समय से मेष राशि के प्रारंभ से दिए गए हैं।
निष्कर्ष :-
हमारे पूर्वज श्रेष्ठ एवं उच्चकोटि के गणितज्ञ थे तथा सामान्य जन को सुलभ भाषा में गणित को प्रस्तुत करते थे। गणितज्ञों, वैज्ञानिकों एवं ज्योतिषियों की दृष्टि से शब्द-कूटांक, व्यंजन-कूटांक तथा वर्ण-कूटांक अत्यंत उपयोगी है। संगणक वैज्ञानिकों के लिए कूटांक अमूल्य धरोहर है, जिसकी उपादेयता प्रयत्नों की पराकाष्ठा से स्वयं सिद्ध है।
Encryption Kutankan (कूटांकन)
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