श्रीमद्भगवद्गीता में गणित (Bhagwat Geeta
mein Ganit)
।। गीता में गणित।।
सृष्टि के सृजन, पोषण तथा संहार में गणितीय संक्रियाओं अद्भुत समायोजन है। बहुआयामी वैदिक गणित के
16 सूत्र तथा 13 उपसूत्र की उपस्थिति वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण और महाभारत में गणना, दर्शन
अथवा व्यवहार इत्यादि के रुप समायोजित किया गया है। भारतीय ग्रंथों में गणित एवं ज्योतिष के
व्यवहारिक अनुप्रयोग का सजीव वर्णन प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों से गणित को प्रात करने के लिए सिर्फ
गणितीय ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है अपितु साधना एवं परिश्रम की पराकाष्ठा के साथ-साथ ईश्वरीय कृपा भी
आवश्यक है सामान्य भाषा में कहा जाए तो "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि" अर्थात् अपने अन्दर भी गणितीय
जिज्ञासा की ज्वाला तीव्र होनी चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत महापुराण का एक भाग है जिसमें वैदिक गणित के 16 सूत्र तथा 13 उपसूत्र
गणना, दर्शन तथा व्यवहार के रूप में विद्यमान हैं। यदि इस ग्रंथ को गणितीय दृष्टिकोण से अध्ययन किया
जाय तो ज्योतिष, अंकगणितीय संक्रिया, बीजगणित, ज्यामिति, निर्देशांक ज्यामिति, त्रिकोणमिति,
अवकलन, समाकलन
योगेश्वर श्री कृष्ण की दिव्यवाणी श्रीमद्भगवद्गीता के भाव बहुत ही गम्भीर और बहुआयामी है।
श्रीमद्भगवद्गीता के 10वें अध्याय के 21 श्लोक में काल को अपना स्वरुप बताते हुए कहा है — "ज्योतिषां
रविरंशुमान्" एवं 30वें श्लोक में योगेश्वर ने स्वयं ही स्वीकार किया है — "कलः कलयतामहम्" अर्थात्
गणना करने वालों में मैं काल हूँ। इस भव्य श्लोक के माध्यम से योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने को अद्वितीय गणक
अर्थात् गणितज्ञ के रुप में स्थापित किया है। ज्योतिष में काल गणना मुख्य है अर्थात् काल को लेकर ही
ज्योतिष चलता है। कला की गणना सूर्य से की जाती है।
पुनः 21वें श्लोक में कहा है —" नक्षत्राणामहं शशि" अर्थात् कुल 27 नक्षत्र होते हैं। इनमें से 2¼ नक्षत्रों की 1
राशि होती है अतः 27 नक्षत्रों की 12 राशियाँ होती है । इन 12 राशियों पर सूर्य भ्रमण करता है तात्पर्य यह
है कि 1 राशि पर सूर्य 1 महीना रहता है 35वें श्लोक में महीनों का वर्णन करते हुए कहा है —मासानां
मार्गशीर्षोऽहम्" अर्थात् महीनों में मैं मार्गशीर्ष का महीना हूँ 35वें श्लोक में 2 महीने का 1 ऋतु इस संदर्भ में
ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है —" ऋतुनां कुसुमाकरः" अर्थात् ऋतुओं में ऋतुओं का राजा बसंत मैं ही हूँ।
इससे आगे बढ़ाते हुए अयन का वर्णन करते हुए 8वें अघ्याय के 24वें कहा है —
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
शब्द कूटांक से अग्नि अर्थात् 3 ऋतुओं या षण्मासा अर्थात् 6 महीने का 1 अयन उत्तरायण होता है।
तथा 25वें श्लोक में अयन का वर्णन किया गया है —
"षण्मासा दक्षिणायनम्" अर्थात् 6 महीने का 1 अरन दक्षिणायन, इस प्रकार एक वर्ष में 2 अयन सिद्ध होता
है।
युग का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने 4थे अध्याय के 8वें श्लोक में कहा है — सम्भवामि युगे युगे अर्थात्
प्रत्येक युग में आवश्यकतानुसार अवतरित होता हूँ।
लाखो वर्षों का 1 युग होता है ऐसे 4 युग होते हैं —
सतयुग = 1728000 वर्ष ( 432000 × 4)
द्वापरयुग = 1296000 वर्ष ( 432000 × 3)
त्रेतायुग = 864000 वर्ष ( 432000 × 2)
कलियुग = 432000 वर्ष ( 432000 × 1)
इन चारों युगों को मिलाकर 1 चतुर्युगी होता है ऐसे ही 1000 चतुर्युगी से ब्रह्मा का 1 दिन (सर्ग) और इतने ही
1 सर्ग का ब्रह्मा का 1 रात (प्रलय) होता है। इस तरह ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष की होती है। इस 100 वर्ष की
अवधि पूर्ण हो जाने पर महाप्रलय होता है जिसमें सब कुछ परमात्मा में ही लीन हो जाता है। इसे 9वें अध्याय
के 7वें श्लोक में कहा है —
कल्पक्षये अर्थात् महाप्रलय
कल्पादौ अर्थात् महासर्ग (ब्रह्मा के पुनः प्रकट होने का काल)
तात्पर्य यह है कि कल्पादौ अर्थात् महासर्ग से काल के साथ ज्योतिष का आरंभ होता है और कल्पक्षय अर्थात्
महाप्रलय के साथ ही इसका अंत स्वयं परमात्मा में ही हो जाता है।
प्राचीन काल में राष्ट्रकूट वंश के शासक अमोघवर्ष [815 से 877 तक] के शासनकाल में भारतीय गणित के
इतिहास में कर्नाटक प्रांत में अवतरित दिगम्बर जैन शाखा के महान एवं गणित चेतन तत्व के अनुसंधानकर्ता
आचार्य महावीराचार्य द्वारा संस्कृत भाषा में 9 अध्याय एवं 1131 श्लोक रचित ग्रंथ गणितसारसंग्रह में गणित
की प्रशंसा करते हुए कहा है कि :
बहुभिर्विप्रलापैः किम् त्रैलोक्ये सचराचरे ।
यत्किंचिद्वस्तु तत्सर्व गणितेन बिना न हि।।
अर्थात् गणित के बारे में बहुत क्या कहना, तीनो लोकों में सचराचर (चेतन और जड़) जगत में जो भी वस्तु
विद्यमान हैं वे सभी गणित के बिना संभव नहीं हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में गणित (Bhagwat Geeta mein Ganit)
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