Arithmetic In Bhagwat Geeta (भागद्गीता में
अंकगणित)
श्रीमद्भगवद्गीता में संख्या एक
भारतीय संस्कृति के मूल ग्रंथों में सुप्रसिद्ध महाभारत के अंश तथा योगेश्वर भगवान के श्रीमुख से अभिभूषित
रहस्यमयी दिव्य वाणी श्रीमद्भगवद्गीता में संख्या एक के लिए 17 विभिन्न रुपों में 27 बार प्रयोग किया गया
है। इसके अध्याय संख्या एवं श्लोक संख्या के अनुसार इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है-
एकाग्रम् – (6/12),
एकाग्रेण – (18/72),
एकान्तम् – (6/16),
एकम् – (5/15,18/66,13/5,3/2,5/1,5/4,18/20),
एकत्वम् – (6/31),
एकत्वेन – (9/15),
एकभक्तिः – (7/17),
एकाकी – (6/10),
एकेन – (11/20),
एकः – (11/42,13/13),
एके – (18/3),
एकस्थम् – (13/20,11/17,11/13),
एका – (2/41),
एकाक्षरम् – (8/13,10/25),
एकया – (8/26),
एकांशेन – (10/42),
एकस्मिन – (18/22)
श्रीमद्भगवद्गीता में संख्या 1 के अनुप्रयोग 10 अर्थों में किए गए हैं।
What are the different dimensions of one in Bhagwat
Geeta, भागद्गीता में एक के विविध आयाम क्या है,
(1) एकाग्रम् और एकाग्रेण – स्थिरता के लिए
सर्वप्रथम संख्या एक के लिए 'स्थिरता' का भाव प्रदर्शित करते हुए अध्याय 6 के 12वें श्लोक में योगेश्वर
भगवान ने कहा है — 'तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा' अर्थात् मनको एकाग्र करें तथा अध्याय 18 के 72वें श्लोक में कहा
है — 'त्वयैकाग्रेण चेतसा' अर्थात् तुमने एकाग्र मन से ध्यानापूर्वक सुना है।
(2) एकान्तम् – अभाव के लिए
अब योगेश्वर भगवान संख्या एक के लिए अभाव अर्थ में प्रयोग करते हुए कहा है — 'न चैकान्तमनशनतः'
अर्थात् ऐसा ही बिल्कुल न खाने से भी योग सिद्ध नहीं होता है।
(3) एकम्, एकत्वम् और एकत्वेन – अभिन्नता के लिए
अब योगेश्वर भगवान संख्या एक के लिए अभिन्नता अर्थ के लिए प्रयोग करते हुए 5वें अध्याय के 5वें श्लोक में
कहा है — 'एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति' अर्थात् इन दो साधनों को फलदृष्टि से एक देखता
है, इसतरह अध्याय 6 के 31वें श्लोक में कहा है — 'भजत्येकत्वमास्थिता' अर्थात् मेरा भजन करने वाला मुझमें
एकी भाव से स्थित तथा अध्याय 9 के 15वें श्लोक में कहा है — 'मामुपाशते एकत्वेन' अर्थात् मुझेमें एकात्म
होकर मेरी उपासना करता है। उपरोक्त तीनों श्लोकों में संख्या 1 को अभिन्नता अथवा एकीकरण के अर्थ में
प्रयोग किया गया है।
(4) एकभक्तिः, एकम् – अनन्यता के लिए
इसके बाद योगेश्वर भगवान् संख्या 1 के लिए अनन्यता अर्थ में प्रयोग करते हुए अध्याय 7 के श्लोक संख्या 17
में कहा है — 'एकभक्तिर्विशिष्यते' अर्थात् अनन्य भक्तिवाला ज्ञानि अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है एवं 18वें अध्याय
के 66वें श्लोक में कहा है — 'मामेकं शरणं व्रज' अर्थात् स्वयं को मुझे पूर्णतः समर्पित कर अथवा मुझसे एकात्म
हो।
(5) एकाकी, एकेन, एकः – अकेला के लिए
अब योगेश्वर भगवान् संख्या 1 के लिए अकेला के अर्थ में अध्याय 6 के 10वे श्लोक में कहा है — 'एकाकी
यतचित्तात्मा' अर्थात् एकांत में स्थिर होकर, 11वें अध्याय के 20वें श्लोक में कहा है — 'व्याप्त त्वैकेन दिशश्च
सर्वाः' अर्थात् संपूर्ण दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण है इसी अध्याय के 42वें श्लोक में अर्जुन ने कहा है —
'एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं' अर्थात् अकेले अथवा अपने सखाओं, कुटुम्बीजनों, सभ्य व्यक्तियों आदि के सामने
और 13 अध्याय के 33वें श्लोक में कहा है — 'यथा प्रकाशयत्येकः' अर्थात् जैसे एक ही सूर्य इस संसार को
प्रकाशित करता है।
(6) एके – अन्यका के लिए
योगेश्वर भगवान् संख्या 1 के लिए जो अर्थ दिया है वह है अन्य। इसके लिए 18वें अध्याय के श्लोक 3 में कहा है
— 'त्याज्य दोषविदित्येके' अर्थात् संपूर्ण कर्मो को दोष की तरह छोड़ देना चाहिए।
(7) एकम् – मन के लिए
यहाँ योगेश्वर भगवान् ने संख्या 1 के लिए जो अर्थ दिया है वह है मन। जिसमें कहते हैं —'इद्रियाणि दशैकं च'
अर्थात् दस इन्द्रियां और एक मन
(8) एकस्थम् – प्रकृति के लिए
यहाँ योगेश्वर भगवान् न संख्या 1 के लिए जो अर्थ दिया है वह है प्रकृति। इसमें उन्होंने 13वें अध्याय के 30वें
श्लोक में कहा है — 'यदा भूतपृथग्भावमेकसथमनुपश्यति।' अर्थात् जिस काल में साधक प्राणियों के अलग
अलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है।
(9) एका, एकम्, एकाक्षरम्, एकया, एकांशेन और एकस्मिन – संख्या के लिए
यह श्रीमद्भगवद्गीता में संख्या 1 के लिए संख्यात्मक गणना के अर्थ के लिए प्रयोग करते हुए अध्याय 2 के 41वें
श्लोक में कहा है — 'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह' अर्थात् इस विषय में निश्चय वाली बुद्धि एक ही होती है,
अध्याय 3 के श्लोक 2 में अर्जुन ने कहा है — 'तदेकं वद निश्चयं' अर्थात् आप निश्चय करके उस एक बातको
कहिये, अध्याय 5 के श्लोक 1 में अर्जुन पुनः पुछता है — 'यच्छ्रेय एतयोरेकं' अर्थात् जो एक जो निश्चित रूप
से, और इसी अध्याय के श्लोक 4 में योगेश्वर भगवान् कह है — 'एकमप्यास्थितः' अर्थात् एक साधन में अच्छी
तरह स्थित, उसके बाद 8वें अध्याय के 13वें श्लोक योगेश्वर भगवान् ने कहा है — 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म' अर्थात्
जो साधक ॐ इस एक अक्षर ब्रह्म का, इसी अध्याय के 26वें श्लोक में कहा है — 'एकया
यात्यनावृत्तिमन्ययाववर्तते पुनः।' अर्थात् इनमें से एक गति को जानेवाले को लौटना नहीं पड़ता है, 10वें
अध्याय के 25वें श्लोक में कहा है — 'गिरामस्म्येकमक्षरम्' अर्थात् शब्दों में एक अक्षर प्रणव अथवा ओंकार हूँ,
इसी अध्याय के 42वें श्लोक में कहा है — 'कृतस्त्रमेकांशेन स्थित जगत्' अर्थात् किसी एक अंशसे संपूर्ण जगत्
को व्याप्त करके स्थित हूँ, 18वें अध्याय के 20वें श्लोक में कहा है — 'सर्वभूतेषु येनैकं' अर्थात् सभी भूत प्राणियों
में एक मुझे देखता है तथा इसी अध्याय के 22वें श्लोक में कहा है — 'यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये ' अर्थात् जिस
ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्यरुप शरीर में ही।
(10) एकस्थम् – स्थान के लिए
योगेश्वर भगवान् ने यहाँ संख्या 1 के लिए जो अर्थ दिया है वह स्थान है। जिसमें उन्होंने 11वें अध्याय के 7वें
श्लोक में कहा है — 'इहैकस्थं जगत्कृत्स्त्रं' अर्थात् मेरे इस शरीर के एक देश में और इसी अध्याय के 13वें श्लोक
में कहा है — 'तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्त्रं' अर्थात् भगवान् के उस शरीर में एक जगह।
इस तरह भगवान् वेद व्यास द्वारा रचित महाभारत महापुराण के एक अंश श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर
भगवान् तथा उनके सखा अर्जुन के बीच के संवाद के माध्यम से जो ज्ञान, कर्म तथा सन्यास की जीवनचर्या का
वर्णन आया है वहाँ गणित प्रारंभिक अंक 1 को दस अर्थों में प्रयोग किया है जोकि श्रीमद्भगवद्गीता में गणित
के होने को प्रमाणित करता है।
Arithmetic In Bhagwat Geeta (भागद्गीता में अंकगणित)
http://www.manasganit.com/Post/details/69-arithmetic-in-bhagwat-geeta
Very meaningful as well helpful knowledge imparted Thanks