भारतीय विज्ञान परंपरा ( Bhartiya Vidya Saar
Bhartiya Vigyan Parampara)
(01) सारांश (Abstract)
(02) परिचय (Introduction)
(03) भौतिकी शास्त्र (Physics)
(03. 01) विद्युत (Electricity)
(03. 02) यंत्र विज्ञान (Mechanics)
(03. 03) विमान शास्त्र (Aeronautics)
(03. 04) नौका शास्त्र (Navigation)
(04) रसायन शास्त्र (Chemistry)
(04. 01) धातु विज्ञान (Metallurgy)
(04. 02) रसायन ( Chemical)
(05) वनस्पति विज्ञान (Botany)
(06) खगोल शास्त्र (Astrology)
(07) विनियोग (Case-Study)
(08) संदर्भ-ग्रंथ-सूची (Bibliography)
भारतीय विज्ञान परंपरा ( Bhartiya Vidya Saar,Bhartiya Vigyan Parampara)
भारतवर्ष में वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन-अनुसंधान की परंपरा वैदिक काल से है। अनेकों ऋषि-मुनियों तथा
मनीषियों ने इसके लिए अपने अमूल्य जीवन का सर्वस्व अर्पित किया है। भृगु, वशिष्ठ, भारद्वाज, अत्रि, गर्ग,
शौनक, नारद, चक्रायण, अगस्त्य आदि प्रमुख हुए जिन्होंने विमान विद्या, नक्षत्र विज्ञान, रसायन विज्ञान,
जहाज निर्माण और जीवन के सभी क्षेत्रों में काम किया।
उदाहरण के लिए महाऋषि भृगु अपने शिल्प शास्त्र में शिल्पा की परिभाषा करते हुए जो लिखते हैं उससे
ज्ञान की परिधि कितनी व्यापक थी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है —
नानाविधानं वस्तुनां यंत्राणाँ कल्पसंपदा
धातुनां साधनानां च वस्तुनां शिल्पसंज्ञितम् ।
कृषिर्जलं खनिश्चेति धातुखण्डं त्रिधाभिधम् ।।
नौका-रथाग्नियानानां, कृतिसाधनमुच्यते।
वेश्म, प्रकार, नगररचना वास्तु संज्ञितम्।।
– भृगु संहिता
अर्थात् —
भृगु दस शास्त्र का उल्लेख करते हैं — कृषि शास्त्र, जल शास्त्र, खनि शास्त्र, नौका शास्त्र, रथ शास्त्र, अग्नियान
शास्त्र, वेश्म शास्त्र, प्रकार शास्त्र, नगर रचना, यंत्र शास्त्र। इसके अतिरिक्त 32 प्रकार की विद्याएं तथा 64
प्रकार की कलाओं का उल्लेख आता है। इसकी विषय-सूची देखकर लगता है कि इनकी परिधि संपूर्ण जीवन में
व्याप्त करने वाली थी। इन विद्याओं के अनेक ग्रंथ थे, कितने ही लुप्त हो गये। कई विद्याएं, जानने वाले के साथ
ही लुप्त हो गई क्योंकि हमारे यहाँ एक मान्यता रही है कि अयोग्य पात्र के हाथ विद्या नहीं जानी चाहिए।
यद्यपि यह सत्य है कि बहुत सा ज्ञान लुप्त हो चुका है, परन्तु आज भी लाखों पांडुलिपियाँ बिखरी पड़ी है।
आवश्यकता है उनके अध्ययन, विश्लेषण और प्रयोग की। इस प्रक्रिया से शायद ज्ञान के नये क्षेत्र उद्घाटित हो
सकते हैं। अतः प्रयास किया गया है कि विषय प्रेमी की रुचि भारतीय विरासत को समझे एवं नई सोच के
साथ भावि पीढ़ी को हस्तांतरित करे।
।। विद्युत शास्त्र।।
मिथक
बैट्री के आविष्कार का श्रेय ब्रिटिश वैज्ञानिक जॉन फ्रेडरिक डेनियल (1836 AD) को तथा बिजली के
आविष्कार का श्रेय बेंजामिन फ्रैंकलिन (1752 AD) को दिया जाता है।
सत्यता:-
महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की,
बैट्री द्वारा विद्युत उत्पादन (Production of electricity by cell) :-
इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥
-अगस्त्य संहिता
अर्थात :-
एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate)
डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury) तथा दस्त लोष्ट
(Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी. पी. होले तथा उनके मित्रों ने इस
आधार पर एक सेल बनाया गया और डिजिटल मल्टीमीटर द्वारा उसको मापा। उसका Open circuit
voltage था 1.38 वोल्ट और Short circuit current था 23 मिली एम्पीयर। इस सफल प्रयोग का प्रदर्शन
7 अगस्त 1990 ई. को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था नागपुर द्वारा किया गया।
विद्युत अपघटन (Electrolysis of water) :-
विद्युत अपघटन के संदर्भ में ऋषि अगस्त ने कही है कि —
अनेन जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु ।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यत्स्मृतः।।
अगस्त संहिता
अर्थात् —
सौ कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदल कर प्राण-वायु तथा उदान-वायु में
परिवर्तित हो जायेगा।
वायुबन्धकवस्त्रेण निबद्धो यानमस्तके
उदानः स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम् ।
( अगस्त संहिता शिल्प शास्त्र सार)
अर्थात् —
उदान वायु को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र में रोका जाये तो यह विमान विद्या के काम में आता है।
विद्युत के प्रकार (Types of Electricity) :-
अगस्त संहिता एवं अन्य ग्रंथों के आधार पर विद्युत भिन्न भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती है उस आधार पर उनके
भिन्न भिन्न नाम है—
(1) तड़ित – रेशमी वस्त्र के घर्षण से उत्पन्न,
(2) सौदामिनी – रत्नों के घर्षण से उत्पन्न,
(3) विद्युत – बादलों के द्वारा उत्पन्न,
(4) शतकुंभी – सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न,
(5) हृदनि – हृद या संरक्षित की हुई बिजली,
(6) अशनी – चुम्बकीय दण्ड से उत्पन्न।
इतनी वृहत जानकारी होने के बाद भी हम अपनी विधा को अनदेखा कर रहें हैं।
सुझाव:-
बैट्री के आविष्कार तथा बिजली के खोज का श्रेय वैदिक ऋषि अगस्त को दिया जाना उचित है, यह वैज्ञानिक
सत्यनिष्ठा का परिचायक होगा।
।। मेकेनिक्स एवं यंत्र विज्ञान।।
महान महाऋषि "कणाद" ( 600 ई. पू.) ने अपने वैशेषिक दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ Motion से लिया है।
आपके अनुसार गति के पाँच प्रकार हैं ;
(I) उत्क्षेपण (Upward motion)
(II) अवक्षेपण (Downward motion)
(III) आकुञ्चन (Motion due to the release of tensile stress)
(IV) प्रसारण (Shearing motion)
(V) गमन General type of motion)
विभिन्न कर्म या motion को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया गया है
(1) नोदन के कारण – लगातार दबाव
(2) प्रयत्न के कारण – जैसे हाथ हिलाना
(3) गुरुत्व के कारण – कोई वस्तु नीचे गिरती है
(4)द्रवत्व के कारण – सुक्ष्म कणों का प्रवाह
गति के नियम (Law of motion) :-
अब हम आपके द्वारा दिए गए "गति के नियम" को देखते हैं।
प्रथम नियम :- वेगः निमित्तविशेषात् कर्मणो जायते ।
(The change of motion is due to impressed force.)
द्वितीय नियम :- वेगः निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियत्दिक् क्रिया प्रबन्ध हेतुः।
(The change of motion is proportional to the motive force impressed and is made in the
direction of the right line in which the force is impressed.)
तृतीय नियम :- वेगः संयोगविशेषाविरोधी।
(To every action there is always an equal and opposite reaction.)
स्थिति स्थापकता (Elastic force) :-
Elasticity वास्तव में किसी पदार्थ के उस गुण को दिया गया नाम है, जिसके कारण छड़ें-प्लेटें आदि कंपन
करते हैं और ध्वनि भी निकलती है। वैशेषिक दर्शनकार इसे जानते थे। उदयन की "न्याय कारिकावली"
नामक ग्रंथ में इसका उल्लेख मिलता है।
स्थितिस्थापकसंस्कारः क्षितिः क्वचिच्चतुर्ष्वपि।
अतीन्द्रियोसौ विज्ञेयः क्वचित् स्पन्देऽपि कारणम् ।।
अर्थात् –
ठोस या द्रव्य के अन्य प्रकार के द्रव्यों में उत्पन्न अदृश्य बल ही, स्पन्दन (vibration) का कारण है।
जल चक्र (Water wheel) :-
भास्कराचार्य (1114 ई.) में अपने ग्रंथ "सिद्धांत शिरोमणि" के गोलाध्याय के यंत्राध्याय के श्लोक 53 से 56
तक water wheel का वर्णन है।
ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य। – 53
एक कुण्डजलान्तर्द्वितियमग्रं त्वधोमुखं च बहिः
युगपन्मुक्त चेत् क नलेन कुण्डाब्दहिः पतति। – 54
नेम्यं बद्धवा घटिकाश्चक्रं जलयंत्रवत् तथा धार्यम्
नलचकप्रच्युतसलिलं पतति यथा तदघटी मध्ये। – 55
भ्रमति ततस्तत् सततं पूर्णघटीभिः समाकृष्टम्
चक्रच्युतं तदुदकं कुण्डे याति प्रणालिकया ।-56
अर्थात् —
ताम्र आदि धातु से बना हुआ, अंकुश के तरह मोड़ा हुआ एवं पानी से भरा तल का एक अन्त को जल पात्र में
डुबा कर और दूसरा अन्त को बाहर अधोमुख करके अगर दोनों अन्त को एकसाथ छोड़ेंगे तब पात्रस्थ जल
सम्पूर्ण रूप से नल के द्वारा बाहर जायेगा। चक्र की परिधि में घटिकाओं को (जल पात्रों को) बांधकर, जल यंत्र
के समान, चक्र के अक्ष के दोनों अन्त को उस प्रकार रखना चाहिए जैसे नल से गिरता हुआ पानी घटिका के
भीतर गिरे। इस से वह चक्र पूर्ण घटियों के द्वारा खींचा हुआ निरंतर घूमता है और चक्र से निकला हुआ पानी
नाली के द्वारा कुण्ड में चला जाता है।
यंत्रों के साधन व कार्य
यंत्र के मुख्य साधनों का वर्णन "यंंत्रार्णव" नामक ग्रंथ में किया गया है।
दंडैश्र्चक्रैश्र्च दंतैश्र्च सरणिभ्रमणादिभिः।
शक्तेरुत्पादनं किं वा चालनं यंत्रमुच्यते।।
– यंंत्रार्णव
अर्थात् —
यंत्र एक ऐसी युक्ति है जिसका मुख्य कार्य :-
दंड (Liver) – उच्चाटन (stirring)
चक्र (Pulley) – वशीकरण (centraling motion)
दंत (Toothed wheel) – स्तंभन (stopping)
सरणि (Inclined plane) – जारण (bringing together)
भ्रमण (Screw) – मारण (annihilation)
जोकि शक्ति उत्पन्न करने के लिए तथा दिशा परिवर्तन के लिए आवश्यक है।
यंत्र के तीन भाग होते हैं —
(1) बीज – कार्य उत्पन्न करना
(2) कीलक – the pin joining power and work
(3) शक्ति – कार्य करने की क्षमता
इस प्रकार यंत्र अपने तीन भाग, पाँच साधनों तथा उनके द्वारा होने वाली क्रियाओं से गतिमान होता है —
इससे विविध प्रकार की गति उत्पन्न होती है —
तिर्यगूर्ध्वमधः पृष्ठे पुरतः पार्श्वयोरपि
गमनं सरणं पात इति भेदाः क्रियोद्भवाः।।
– समरांगण – अ- 31
विविध कार्यों की आवश्यकतानुसार विविध गति होती है जिससे कार्य सिद्ध होता है —
(1) तीर्यक – slanting
(2) ऊर्ध्व – upwards
(3) अधः – downwards
(4) पृष्ठे – backwards
(5) पुरतः – Forwards
(6) पार्श्वयोः – sideways
किसी भी यंत्र के मुख्य गुण क्या क्या होन चाहिए, इसका वर्णन समरांगण सूत्रधार में करते हुए पुर्जों के
परस्पर सम्बन्ध, चलने में सहजता, चलते समय विशेष ध्यान न देना पड़े, चलने में कम ऊर्जा का लगना,
चलते समय ज्यादा आवाज़ न करें, पुर्जे ढीले न हो, गति कम ज्यादा न हो, विविध कामों में समय संयोजन
निर्दोष हो तथा लंबे समय तक काम करना आदि प्रमुख 20 गुणों की चर्चा करते हुए ग्रंथ में कहा गया है कि
—
चिरकालसहत्वं च यंत्रस्यैते महागुणाः स्मृताः – समरांगण – अ- 3
हाइड्रोलिक मशीन (Turbine) :-
जलधारा के शक्ति उत्पादन में उपयोग के संदर्भ में "समरांगण सूत्रधार" ग्रंथ के 31 वें अध्याय में कहा है —
धारा च जलभारश्च पयसो भ्रमण तथा।।
यथोच्छ्रायो यथाधिक्यं यथा नीरंध्रतापि च ।
एवमादीनि भूजस्य जलजानि प्रचक्षते।।
अर्थात् —
बहती हुई जलधारा का भार वेग का शक्ति उत्पादन हेतु हाइड्रोलिक मशीन (Turbine)में उपयोग किया
जाता है। जलधारा वस्तु को घुमाती है और ऊँचाई से गिरे तो उसका प्रभाव बहुत होता है और उसके भार व
वेग के अनुपात में घूमती है। इससे शक्ति उत्पन्न होती है।
सङ्गृहीततश्च दत्तश्च पूरितः प्रतिनोदितः ।
मारुद बीजत्वमायाति यंत्रेषु जलजन्मसु।।
– समरांगण – अ- 31
अर्थात् —
पानी को संग्रहित किया जाय, उसे प्रवाहित और पुनः क्रिया हेतु उपयोग किया जाए, यह मार्ग है जिससे बल
का शक्ति के रूप में उपयोग किया जाता है।
।। विमान शास्त्र।।
वैदिक काल के महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित ग्रंथ "यंत्र सर्वस्व" का एक भाग "वैमानिक शास्त्र" है। इस पर
बोधानंद ने टीका लिखी थी। आज यंत्र सर्वस्व तो उपलब्ध नहीं है तथा वैमानिकी शास्त्र भी पूरा उपलब्ध नहीं
है। पर जितना भी उपलब्ध है, उससे यह विश्वास होता है कि वैदिक काल में विमान एक सच्चाई थी।
वैमानिक शास्त्र के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान के विषय के 25 ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख हैं
अगस्त कृत – शक्तिसूत्र, ईश्वर कृत – सौदामिनी कला, भारद्वाज कृत – अंशुबोधिनी, यंत्र सर्वस्व तथा आकाश
शास्त्र, शाकटायन कृत – वायुतत्व प्रकरण, नारद कृत – वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि।
ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भारद्वाज मुनि विमान शास्त्र के उनसे पूर्व आचार्य तथा उनके ग्रंथ के बारे में
लिखते हैं। वे आचार्य तथा ग्रंथ निम्न हैं —
(1) नारायण कृत – विमान चंद्रिका
(2) शौनक कृत – व्योमयान तंत्र
(3) गर्ग कृत – यंत्र कल्प
(4) वाचस्पतिकृत – यान बिन्दु
(5) चाक्रायणीकृत – खेटयान प्रदीपिका
(6) धुण्डीनाथ – व्योमयानार्क प्रकाश
इस ग्रंथ में भारद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा, विमान का पायलट जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया,
आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन
किया है।
विमान की परिभाषा :-
नारायण ऋषि के अनुसार —
जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेग पूर्वक चल सके, उसे विमान कहते हैं।
शौनक के अनुसार —
एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके।
विश्वम्भर के अनुसार —
एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं।
रहस्यज्ञ अधिकारी (Pilot)
भारद्वाज मुनि कहते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में विमान
चलाने के 32 रहस्य बताये गये हैं। उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है क्योंकि
विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलना या
चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना, इसे जाने बिना यान चलाना असंभव है। अतः
जो इन रहस्यों को जानता है, वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है। इन 32
रहस्यों में कुछ प्रमुख रहस्य निम्न प्रकार हैं —
कृतक रहस्य, गूढ़ रहस्य, अपरोक्ष रहस्य, संकोचा, विस्तृत, सर्पागमन रहस्य, परशब्द ग्राहक रहस्य,
रूपाकर्षण रहस्य, दिक्प्रदर्शन रहस्य, सतब्धक रहस्य, कर्षण रहस्य, इत्यादि।
आकाश मार्ग :-
महर्षि शौनक आकाश मार्ग का 5 प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊंचाई पर
विभिन्न आवर्त या whirlpools का उल्लेख करते हैं और उस उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते
हैं। इसमें पृथ्वी से 100 किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों
का विस्तार से वर्णन करते हैं।
10 किमी. (1) रेखापथ – शक्त्यवृत – Whirlpool of energy
50 किमी. (2) मंडल पथ – वातावृत – Wind
60 किमी. (3) कक्षा पथ – किरणावृत – Solar rays
80 किमी. (4) शक्ति पथ – सत्या वृत – Cold current
90 किमी. (5) केन्द्र पथ – घर्षणावृत – Collision
वैमानिक का खाद्य :-
इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो इसका वर्णन है। उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज
तो विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे। अतः युद्ध के दौरान
जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना, इसलिए 100 वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके
सहारे दो तीन माह तक जीवन चलाया जा सके।
उर्जा स्रोत :-
महर्षि भारद्वाज ने विमान चलाने के लिए चार प्रकार के उर्जा स्रोतों का उल्लेख करते हैं —
(1) वनस्पति तेल जो पेट्रोल की भांति काम करता है
(2) पारे की भाप का प्राचीन शास्त्र में वर्णन है, अमेरिका में भी इस उर्जा से विमान उड़ाने का प्रयास किया
गया परन्तु उपर जा कर विस्फोट हो गया।
(3) सौर ऊर्जा के द्वारा भी विमान चलाने का वर्णन है।
(4)वातावरण की ऊर्जा का उपयोग कर अन्य किसी साधन का उपयोग किए बिना सीधा वातावरण से
संग्रहित उर्जा से विमान के संचालन की प्रक्रिया का वर्णन है।
विमान के प्रकार :-
विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते हैं। मंत्रिका प्रकार के विमान जिसमें
भौतिक तथा मानसिक शक्तियों के समिश्रण की प्रक्रिया रहती थी वह सतयुग तथा त्रेता युग में संभव था।
इसमें 25 प्रकार के विमानों का उल्लेख है। द्वापर युग में तांत्रिका प्रकार के विमान थे। इनके 56 प्रकार बतायें
हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चलित विमान थे इनके 25 प्रकार बतायें हैं। इनमें शकुन, रुक्म, हंस,
पुष्कर, त्रिपुर, इत्यादि प्रमुख थे।
प्राचीन काल में अयोग्य व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाय इस कारण सभी महत्वपूर्ण जानकारियों को कूट
भाषा में गुप्त रूप से लिखा गया है अतः उसे समझने के लिए ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो विज्ञान को
संस्कृत में आत्मसात कर सके।
।। नौका शास्त्र ।।
वर्तमान में भारतीय नौसेना का ध्येय वाक्य है, "शं नो वरुणः" अर्थात् जल देवता हम पर कृपालु हों। समुद्र
यात्रा भारतवर्ष में प्राचीन काल से प्रचलित रही है। महर्षि अगस्त्य समुद्री द्वीप द्वीपान्तरों की यात्रा करने
वाले महापुरुष थे, इसी कारण अगस्त्य ने समुद्र को पी डाला, यह कथा प्रचलित हुई होगी।
भारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, ब्राह्मण, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता
है। जैसे वाल्मीकि रामायण में अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिनमें सैकड़ों योद्धा
सवार रहते थे।
नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम् ।
सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वित्याभ्यचोदयत्।।
अर्थात् —
सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।
इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है।
सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम् ।
अर्थात् —
यंत्र पताका युक्त नाव जो सभी प्रकार की हवाओं को सहन करने वाली।
लकड़ी के चार वर्ण :-
वृक्ष आयुर्वेद में लकड़ी के प्रकार बताये गये हैं। उनमें कोमल और सहज जुड़ने वाली लकड़ी ब्राह्मण कही गई
तथा हल्की व दृढ़ पर जिसे दूसरी लकड़ी से जोड़ना कठीन है वह क्षत्रिय, हल्की तथा दृढ़ को वैश्य और भारी
तथा दृढ़ को शूद्र कहा गया है। जिस लकड़ी में दो जाति के गुण हो, उसे द्विजाति कहा गया।
नौकाओं के प्रकार :-
"युक्ति कल्पतरु" ग्रंथ में नौका शास्त्र का विस्तार से वर्णन है। नौकाओं के प्रकार, उनका आकार, नाम आदि
का विश्लेषण किया गया है।
(1) सामान्य – वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सके।
(2) विशेष – जिसके द्वारा समुद्र की यात्रा की जा सके।
जिसके 2 प्रकार हैं दीर्घा तथा उन्नता।
सामान्य नौका :- सभी नौकाओं की लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई की क्रमशः माप"हाथ" में हैं।
क्षुद्रा – 16 – 4 – 4
मध्यमा – 24 – 12 – 8
भीमा – 40 – 20 – 20
चपला – 48 – 24 – 24
पटला – 64 – 32 – 32
भया – 72 – 36 – 36
दीर्घा – 88 – 44 – 44
पत्रपुटा – 96 – 48 – 48
गर्भरा – 112 – 56 – 56
मन्थरा – 120 – 60 – 60
विशेष प्रकार की नौका दीर्घा तथा उन्नता —
दीर्घा के 10 प्रकार
दीर्घिका – 32 – 4 – 3.2
तरणि – 48 – 6 – 4.8
लोला – 64 – 8 – 6.4
गत्वरा – 80 – 10 – 8
गामिनी – 96 – 12 – 9.4
तारी – 112 – 14 – 11.2
जंगला – 128 – 16 – 12.8
प्लाविनी – 144 – 18 – 14.4
धारिणी – 160 – 20 – 16
वेगिनी – 176 – 22 – 17.6
उन्नता के 5 प्रकार —
ऊर्ध्वा – 22 – 16 – 16
अनुर्ध्वा – 48 – 24 – 24
स्वर्णमुखी – 64 – 32 – 32
गर्भिणी – 80 – 40 – 40
मंथरा – 96 – 48 – 48
उत्कृष्ट निर्माण :-
ग्रंथ में नौका की सजावट का सुन्दर वर्णन आता है। चार श्रृंग (मस्तुल) वाली नौका सफेद, तीन श्रृंगवाली
लाल, दो श्रृंगवाली पीली तथा एक श्रृंगवाली को नीला रंगना चाहिए।
नौका मुख :-
नौका के आगे की आकृति याने नौका का मुख – सिंह, महिष, सर्प, हाथी, व्याघ्र, पक्षी, मेढ़क आदि विविध
आकृतियों के आधार पर बनाने का वर्णन है।
।। धातु विज्ञान।।
धातु विज्ञान का भारत में प्राचीन काल से व्यवहारिक जीवन में उपयोग होता रहा है।
यजुर्वेद के एक मंत्र में इसका उल्लेख मिलता है —
अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च मे पर्वताश्च मे वनस्पतयश्च मे हिरण्यं च मेऽयश्च मे श्यामं च मे लोहं च मे
सीस च मे त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ।
—कृ यजुर्वेद 4 – 7 – 5
अर्थात् —
मेरे पत्थर, मिट्टी, पर्वत, गिरि, बालू, वनस्पति, सुवर्ण, लोहा, लाल लोहा, ताम्र, सीसा और टीन यज्ञ से बढ़े।
रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति ग्रंथों में भी सोना (सुवर्ण, हिरण्य), लोहा (स्याम), टिन (त्रिपु), चांदी
(रजत), सीसा, तांबा (ताम्र), काँसा आदि का उल्लेख आता है।
धातु विज्ञान से संबंधित व्यवसाय करने वाले कुछ लोगों के नाम —
कर्मरा – कच्ची धातु गलाने वाले
धमत्र – भट्ठी में अग्नि तीव्र करने वाले
हिरण्यक – स्वर्ण गलाने वाले
खनक – खुदाई कर धातु निकालने वाले
चरक, सुश्रुत, नागार्जुन ने स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह, अभ्रक, पारा आदि से औषधियाँ बनाने की विधि का
विस्तार से अपने ग्रंथों में वर्णन किया है। केवल प्राचीन ग्रंथों में ही विकसित धातु का उल्लेख नहीं मिलता,
अपितु उसके अनेक प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। उनमें से कुछ उदाहरण निम्न प्रकार से हैं —
(1)
।। जस्ता।।
मिथक :-
अठारहवीं शताब्दी में जस्ता बनाने की ब्रिस्टल विधि को विलियम चैम्पियन ने अपने नाम से पेटेंट करा लिया
है।
सत्यता :-
तेरहवीं शताब्दी के ग्रंथ रसरत्नसमुच्चय में जस्ता बनाने की जो विधि दी गई है ब्रिस्टल विधि उसी की नकल
है।
धातु विज्ञान के क्षेत्र में जस्ते की खोज एक आश्चर्य है। आसवन प्रक्रिया (Distillation process) के द्वारा कच्चे
जस्ते से शुद्ध जस्ता निकालने की प्रक्रिया निश्चय ही भारतीयों के लिए गर्व का विषय है। राजस्थान के
"जवर" क्षेत्र में खुदाई में 400 ई. पू. में इसके निर्माण की प्रक्रिया के अवशेष मिले हैं। मात्र 10 % जस्ते से
पीतल सोने की तरह चमकने लगता है। जवर क्षेत्र की खुदाई में जो पीतल की वस्तुएं प्राप्त हुई है उसका
रासायनिक विश्लेषण करने पर पाया गया कि इनमें जस्ते की मात्रा 34 % से अधिक है, जबकि आज भी ज्ञात
विधियों के अनुसार सामान्य स्थिति में पीतल में 28 % से अधिक जस्ते का समिश्रण नहीं हो पाता है।
जस्ते को पिघलाना भी एक जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि सामान्य दबाव में यह 913°C तापमान पर उबलने
लगता है। जस्ते के आक्साईड या कच्चे जस्ते से शुद्ध जस्ता प्राप्त करने के लिए उसे 1200°C तापमान आवश्यक
है, लेकिन इतने तापमान पर जस्ता भाप बन जाता है। अतः उस समय पहले जस्ते का आक्साइड बनाने के
लिए कच्चे जस्ते को भूँजते थे, फिर भूँजे हुए जस्ते को कोयला व अपेक्षित प्रमाण में नमक मिलाकर मिट्टी के
मटके में तपाया जाता था तथा 1200°C ताप पर बनाए रखा जाता था। इस पर वह भाप बन जाता था, परंतु
भारतीयों ने उस समय विपरीत आसवनी नामक प्रक्रिया विकसित की थी। इसके प्रमाण जवर की खुदाई में
प्राप्त हैं। इसमें कार्बन मोनोआक्साइड के वातावरण में जस्ते के आक्साईड भरे पात्र को उल्टे रख कर गर्म
किया जाता था। जैसे ही जस्ता भाप बनता, ठीक नीचे रखे ठंडे स्थान पर पहुंच कर धातु रूप में आ जाता था
और इस प्रकार शुद्ध जस्ते की प्राप्ति हो जाती थी। जस्ते को प्राप्त करने की यह विद्या भारत में ईसा के जन्म से
पूर्व से प्रचलित है।
(2)
।।लोहा।।
इतिहास में भारतीय इस्पात की श्रेष्ठता के अनेक उल्लेख मिलते हैं। अरब और फारस में लोग भारतीय इस्पात
की तलवार के लिए लालायित रहते थे।
प्रसिद्ध धातु वैज्ञानिक तथा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रो. अनन्तरमन ने इस्पात बनाने की संपूर्ण विधि
बताई है। कच्चे लोहे, लकड़ी तथा कार्बन को मिट्टी की प्यालियों में 1535°C ताप पर गर्म कर धीरे धीरे 24
घंटे में ठंडा करने पर उच्च कार्बन युक्त इस्पात प्राप्त होता है इस इस्पात से बनी तलवार इतनी धारदार तथा
मजबूत होती है कि रेशम को भी सफाई से काट देती है।
Indian Science and technology in 18th century नामक पुस्तक में श्री धर्मपाल ने अपनी पुस्तक में
यूरोपीय लोगों ने जो प्रगत लौह उद्योग के प्रमाण दिये हैं।
पहली रिपोर्ट :-
सितम्बर 1795 ई. को डाॅ. बेंजामिन हायन ने रामनाथ पेठ (मद्रास प्रांत) एक सुन्दर गांव बसा है। यहाँ
आसपास खदानें हैं तथा 40 इस्पात की भट्टियाँ हैं। इन भट्टियों में इस्पात निर्माण के बाद उसकी कीमत 2
रुपये प्रति मन (1 मन = 40 किलो) पड़ती है अतः कंपनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।
दूसरी रिपोर्ट :-
मेजर जेम्स फ्रैंकलिन ने मध्य भारत के जबलपुर, पन्ना, सागर आदि स्थानों की लौह खदानों का वर्णन करता
है तथा इस्पात बनाने की प्रक्रिया के बारे में कहता है चारकोल सारे भारत में लोहा बनने के काम में प्रयुक्त
होता है। जिस भट्टी (furnace) का उल्लेख करता है, उसके निर्माण किया गया है। उसमें सभी भाग बराबर
औसत 19 – 20 हाथ /cubit (1 cubit = लगभग 18 इंच) के और छोटी 16 हाथ के थे। भट्टी बनाने की विधि
तथा माप का वर्णन करता है सभी भट्टियों की नाप एक ही प्रकार के है लम्बाई 4¼ भाग तो चौड़ाई 3 भाग
तथा मोटाई 1½ भाग, इसके उपांग गुडारिया, पचर, गरेरी तथा अकारिया उसमे लगाये जाते थे बाद में जब
भट्टी पूरी तरह से सूख जाती है तो उसे काम में लाया जाता है। भट्टी के बाद धोंकनी (blow) उसका मुँह
(nozzle) बनाने की विधि, उसके बाद भट्टी से जो कच्चा लोहा निकलेगा उसे शुद्ध करने की रिफाइनरी का
वर्णन करता है। फिर उससे इस्पात बनाने की प्रक्रिया तथा मात्रा का निरीक्षण उसने 30 अप्रैल 1827 से लेकर
6 जून 1827 तक किया। इस बीच 4 भट्टियों से 223½ मन इस्पात बना और इसकी विशेषता गुणवत्ता तथा
विभिन्न तापमान एवं परिस्थिति में श्रेष्ठता की वह प्रशंसा करता है उस समय 1 मन इस्पात की कीमत 11¾
आना (1 आना = 4 पैसे पुराना / 6¼ पैसा नया) थी।
इसी प्रकार सोने, तांबे (Copper) तथा शीशे (Lead) के उपयोग के संदर्भ में अथर्ववेद, रसतरंगिणी,
रसायनसार, शुक्रनीति, आश्वालायन गृह्यसूत्र, मनुस्मृति में मिलते हैं। इससे ज्ञात होता है कि धातु विज्ञान
भारत में प्राचीन काल से ही विकसित रहा और इसका मानव कल्याण के लिए उपयोग करने के लिए विविध
विधियाँ भारत में विकसित की गईं।
।। रसायन शास्त्र।।
रसायन शास्त्र का सम्बन्ध धातु विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान से भी है। वर्तमान काल में प्रसिद्ध वैज्ञानिक
आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय ने "हिन्दू केमेस्ट्री" ग्रंथ लिख कर कुछ समय से लुप्त शास्त्र को फिर लोगों के सामने
लाया। रसायन शास्त्र एक प्रयोगात्मक विज्ञान है। खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं
का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व परस्पर परिवर्तन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक औषधियों
का निर्माण इसके द्वारा होता है।
प्राचीन काल के रसायनज्ञ तथा उनकी कृतियाँ :-
नागार्जुन – रसरत्नाकर, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक
वांग्भट्ट – रसरत्न समुच्चय
गोविन्दाचार्य – रसार्णव
यशोधर – रस प्रकाश सुधाकर
रामचंद्र – रसेन्द्र चिंतामणि
सोमदेव – रसेन्द्र चूड़ामणि
मुख्य रस (Chemical) :-
रसरत्न समुच्चय ग्रंथ में निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है।
महारस, उपरस, सामान्यरस, रत्न, धातु, विष, क्षार, अम्ल, लवण, लौहभस्म
महारस (Main Chemical) :-
अभ्रं, वैक्रांत, भाषिक, विमला, शिलाजतु, सास्यक, चपला, रसक
उपरस :-
गंधक, गैरिक, काशिस, सुवरी, लालक, मनः शिला, अंजन, कंकुष्ठ
सामान्य रस :-
कोयिला, गौरीपाषाण, नवसार, वराटक, अग्निजार, लाजवर्त, गिरि सिंदूर, हिंगुल, मुर्दाड श्रृंगकम्
प्रयोग शाला :-
रसरत्न समुच्चय के अध्याय – 7 में रसशाला याने प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन है। इसमें 32 से अधिक यंत्रों
का उपयोग किया जाता था जिनमें प्रमुख हैं —
(1) दोलयंत्र, (2) स्वदनी यंत्र, (3) पाटन यंत्र, (4) अधस्पंदन यंत्र, (5) ढ़ेकी यंत्र, (6) बालूका यंत्र, (7) तिर्यक
पाटन यंत्र, (8) विद्यधर यंत्र, (9) धूप यंत्र, (10) कोष्टी यंत्र, (11) कच्छप यंत्र, (12) डमरु यंत्र
धातुओं का मारना :-
विविध धातुओं को उपयोग करने हेतु उसे मारने की विधि का वर्णन किया गया है। प्रयोगशाला में धातुओं को
मारना एक परिचित विधि थी। गंधक का सभी धातुओं को मारने में उपयोग होता था।
रसायन शास्त्री गोविन्दाचार्य कहते हैं कि —
नास्ति तल्लोहमातंङ्गो यन्न गंधककेशरी।
निहन्याद्वन्धमात्रेण यद्वा माक्षिककेशरी।।
रसार्णव – 7 – 138 – 142
अर्थात् –
ग्रंथ में गंधक की तुलना सिंह से की गई है तथा धातुओं की हाथी से और कहा गया है कि जैसे सिंह हाथी को
मारता है उसी प्रकार गंधक सब धातुओं को मारता है।
मिश्र धातु (पीतल):-
नागार्जुन कहते हैं कि —
क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजितः ।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्।।
रसरत्नाकर – 3
अर्थात् —
जस्ता (Zinc) शुल्व (ताम्बे) से तीन बार मिलाकर गर्म किया जाय तो पीतल (Brass) मिश्र धातु बनती है।
सक्रियता श्रेणी :-
महाऋषि गोविन्दाचार्य ने धातुओं के जंग-रोधन या क्षरण रोधों की क्षमता का क्रम से वर्णन किया है —
सुवर्णं रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमाः ।
लोहकं षड्विधं तच्च यथापूर्वं तदक्षयम् ।।
—रसार्णव – ७ – ८९ – ९०
अर्थात :-
धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है….
सुवर्ण (सोना)…. चांदी…. ताम्र (copper)…. वंग… सीसा… तथा लोहा। इसमें सोना सबसे अधिक अक्षय है।
लवण :-
ताम्रदाह जलैर्योगे जायते तुत्यकं शुभम् ।
अर्थात् —
तांबे के साथ तेजाब का मिश्रण होता है तो काॅपर सल्फेट प्राप्त होता है।
Ca + H2 SO4 —> Ca SO4
बज्रसंधात (Adamantine Compound):-
वराहमिहिर अपनी वृहत्संहिता में कहते हैं कि —
अष्टौ सीसकभागाः कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभागः।
मया कथितो योगोऽयं विज्ञेयो वज्रसङ्घातः ।।
—वृहत्संहिता
अर्थात् —
एक यौगिक जिसमें आठ भाग शीशा, दो भाग कांसा और एक भाग लोहा हो उसे मय द्वारा बताई विधि का
प्रयोग करने पर वह वज्रसङ्घात बन जायेगा।
आशव बनाना :-
चरक के अनुसार 9 प्रकार के आशव बनाने का उल्लेख है —
(1) धान्यासव – Grain and Seeds
(2) फलासव – Fruits
(3) मूलासव – Roots
(4) सरासव – Wood
(5) पुष्पासव – Flowers
(6) पत्रासव – Leaves
(7) काण्डासव – Stems (Stacks)
(8) त्वगासव – Barks
(9) शर्करासव – Sugar
इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के गंध, इत्र, सुगंधि के सामान आदि का भी विकास हुआ था। रसायनशास्त्रीय
धातु सम्बन्धी व्यापक प्रयोग के बारे में धातु विज्ञान के वर्णन के समय पूर्व में ही कहा गया है।
।। वनस्पति शास्त्र।।
वैदिक काल से ही भारत वर्ष में प्रकृति के निरीक्षण, परीक्षण एवं विश्लेषण की प्रवृत्ति रही है। अतः इसी
प्रक्रिया में वनस्पति जगत का विश्लेषण किया गया। प्राचीन वाङ्गमय में इसके अनेक संदर्भ ज्ञात होते हैं।
अथर्ववेद में पौधों को आकृति तथा अन्य लक्षणों के आधार पर सात उप विभागों में बांटा गया है –
यथा — वृक्ष, तृण, औषधि, गुल्म, लता, अवतान, वनस्पति।
आगे चलकर महाभारत, विष्णुपुराण, मत्स्य पुराण, शुक्र नीति, बृहत्संहिता, पाराशर, चरक, सुश्रुत, उदयन
आदि द्वारा वनस्पति, उसकी उत्पत्ति, उसके अंग, क्रिया उनके विभिन्न प्रकार, उपयोग आदि का विस्तार से
वर्णन किया गया है।
पौधे में जीवन :-
पौधे जड़ नहीं, अपितु उनमें जीवन होता है। वे चेतन जीव की तरह सर्दी – गर्मी के प्रति संवेदनशील रहते हैं,
उन्हें भी हर्ष और शोक होता है, वे मूल से पानी पीते हैं, उन्हें भी रोग होता है इत्यादि।
सुखदुःखयोश्च ग्रहणाच्छिन्नस्य च विरोहणात् ।
जीवं पश्यामि वृक्षाणां चैतन्यं न विद्यते।।
अर्थात् —
वृक्ष कट जाने पर उनमें नया अंकुर उत्पन्न हो जाता है और वे सुख, दुःख को ग्रहण करते हैं। इससे मैं देखता हूँ
कि वृक्षों में जीवन है। वे अचेतन नहीं है।
महर्षि चरक कहते हैं कि —
तच्येतनावद् चेतनञ्च
अर्थात् —
प्राणियों की भांति उनमें (वृक्षों में) भी चेतना होती है।
आगे कहते हैं कि —
अत्र सेंद्रियत्वेन वृक्षादीनामपि चेतनत्वम् बोद्धव्यम् ।
अर्थात् —
वृक्षों को भी इन्द्रिय है, अतः उनमें चेतना है। इसको जानना चाहिए।
प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) के खोज का श्रेय डच जीव विज्ञानी Jan Ingenhousz (1730 – 1799
AD) को दिया जाता है।
सत्यता:-
हरा पौधा कार्बन डाइऑक्साइड तथा क्लोरोफिल सूर्य प्रकाश की उपस्थिति में आक्सीजन तथा कार्बोहाइड्रेट
का निर्माण करता है जोकि पौधे का भोजन है।
महर्षि पाराशर द्वारा रचित ग्रंथ "वृक्ष आयुर्वेद" के छः भाग है—
(1) बीजोत्पत्ति काण्ड, (2) वानस्पपत्य काण्ड, (3) गुल्म काण्ड, (4) वनस्पति काण्ड, (5) विरुद्ध वल्ली काण्ड
तथा (6) चिकित्सा काण्ड
इस ग्रंथ के प्रथम भाग बीजोत्पत्ति काण्ड में आठ अध्याय है जिनमें बीज के वृक्ष बनने तक की गाथा आदि का
वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन किया गया है। इसके प्रथम अध्याय है बीजोत्पत्ति सूत्राध्याय इसमें महर्षि
पाराशर कहते है—
आपोहि कललं भुत्वा यत् पिण्डस्थानुकं भवेत् ।
तदेवं व्यूहमानत्वात् बीजत्वमघि गच्छति ।।
पहले पानी जेली जैसी पदार्थ को ग्रहण कर न्यूक्लियस बनाता है और फिर वह धीरे-धीरे पृथ्वी से ऊर्जा और
पोषक तत्व ग्रहण करता है। फिर उसका आदि बीज के रुप में विकास होता है और आगे चलकर कठोर बनकर
वृक्ष का रूप धारण करता है। आदि बीज यानी प्रोटोप्लाज्म के बनने की प्रक्रिया है जिसकी अभिव्यक्ति बीजत्व
अधिकरण में की गई है
चौथा अध्याय वृक्षांग सूत्राध्याय फिजियोलॉजी का है उसमें पत्रों के बारे में विस्तृत वर्णन किया गया है तथा
प्रकाश संश्लेषण यानि फोटो सिंथेसिस की क्रिया के लिए कहा है—
पत्राणि तु वातातपरञ्जकानि अभिगृहन्ति।
अर्थात—
वात (कार्बन डाइऑक्साइड), आतप (सूर्य प्रकाश) तथा रंजक (क्लोरोफिल) । अतः यह स्पष्ट है कि वात
(कार्बन डाइऑक्साइड)+ आतप (सूर्य प्रकाश) +रंजक (क्लोरोफिल) के उपयोग द्वारा वृक्ष अपना भोजन स्वयं
बनाते हैं
सुझाव :-
प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) के खोज का श्रेय वैदिक ऋषि पाराशर को दिया जाना उचित है, यह
वैज्ञानिक सत्यनिष्ठा का परिचायक होगा।
कोशिका की खोज राबर्ट हुक ने सन् 1665 ई. में की।
सत्यता:-
जीव की अत्यंत सूक्ष्म मूलभूत इकाई जिसमें जीवन के सभी गुण विदमान हो कोशिका कहलाती है।
महर्षि पाराशर द्वारा रचित अद्भुत ग्रंथ वृक्ष आयुर्वेद में कोशिका की रचना का वर्णन करते हुए कहते हैं
कि—
पचे रसकोषस्तु रशस्पाशयः आधारञ्च ।
खलु वृक्षपत्रे रसकोषस्त्व परिसंख्यीयः सन्ति ।
ते कलाकेष्टितेन पाञ्च भौतिक गुण समन्वितस्य रसस्याशयञ्च।
एव रञ्जक युक्तमणवश्च।
अर्थात—
इसका अर्थ है कि यह अणु के समान माईक्रोस्कोपिक है, इसमें रस (प्रोटोप्लाज्म) है और यह कला से आवेष्टित
(सेल मेम्ब्रेन) है।
कला तु सुक्ष्माच्च पचका या भूतोष्म पाचिता कलला दुपाजायते ।
अर्थात—
यानि प्रारंभिक बीज की कला और टेरेस्ट्रियल (भूमि) रस तथा टेरेस्ट्रियल एनर्जी से इस सेल का निर्माण होता
है। महर्षि पाराशर सेल के अंग का वर्णन करते हैं।
सन् 1665 ई. में राबर्ट हुक ने माइक्रोस्कोप के द्वारा जो वर्णन किया उससे विस्तृत वर्णन महर्षि पाराशर
हजारों वर्ष पूर्व करते हैं। वे कहते हैं, कोष की रचना निम्न प्रकार है—
(1) कलावेष्टन (Outer wall), (2) रंजकयुक्त रसश्रय (Gap with a colouring matter), (3) सूक्ष्मपत्रक
(Inner wall) तथा (4) अण्वश्च (Not visible to the naked eye)
अब सेल का वर्णन बिना माईक्रोस्कोप के संभव नहीं है। इसका मतलब यह है कि वृक्ष आयुर्वेद के रचयिता को
हजारों वर्ष पहले माईक्रोस्कोप का ज्ञान अवश्य रहा होगा।
सुझाव:-
कोशिका के खोज का श्रेय वैदिक ऋषि पाराशर को दिया जाना उचित है, यह वैज्ञानिक सत्यनिष्ठा का
परिचायक होगा।
महर्षि पाराशर का वर्गीकरण :-
महर्षि पाराशर ने सपुष्प वनस्पतियों को विविध परिवारों में बाँटा है। जैसे शमगणीय (फलियों वाले पौधे),
पिपीलिका गणीय, स्वास्तिक गणिय, त्रिपुण्डक गणीय, मल्लिका गणीय और कूर्च गणीय। आश्चर्य की बात है
कि जो विभाजन महर्षि पाराशर ने किया है, आधुनिक वनस्पति विज्ञान का विभाजन भी इससे मिलता
जुलता है।
उदाहरण के लिए — शमगणीय विभाजन
समी तु तुण्दमण्डला विषमाविदलास्मृता।
पञ्चमुक्तदलैश्चैव युक्तजालकरुर्णितैः।।
दशभिः केशरर्विद्यात् समि पुस्पस्य लक्षणम् ।
समी सिम्बिफला ज्ञेया पार्श्व बीजा भवेत् सा।।
वक्रं विकर्णिकं पुस्पं शुकाख्या पुष्पमेव च।
एतैश्च पुष्पभेदैस्तु भिद्यन्ते समिजातयः ।।
वृक्ष आयुर्वेद – पुष्पांगसूत्राध्याय
शमगणीय Leguminasal
पाराशर के अनुसार आधुनिक मान्यता
तुण्दमण्डल – Flowers hypogamus
विषम विदल – Unequal corolla lobes
पंच मुक्तदल – Fivetrue Petals
युक्त जालिका – Synsephalous corolla
दश प्रिकेसर – Ten Stamens
इसी प्रकार अन्य विभाजन भी है।
मूल से जल का पीना :-
वृक्षों द्वारा द्रव्य आहार लेने का ज्ञान भारतीयों को था। अतः उनका नाम पादप, जो मूल से पानी पीता है रखा
गया था।
महाभारत के शांतिपर्व में वर्णन आता है कि —
वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोर्ध्वं जलमाददेत् ।
तथा पवनसंयुक्ताः पादैः पिबति पादपः ।।
– शांतिपर्व
अर्थात् —
जैसे कमल नाल को मुख में रखकर अवचूषण करने से पानी पिया जा सकता है ठीक वैसे ही पौधे वायु की
सहायता से मूलों के द्वारा पानी पीते हैं।
।। खगोल शास्त्र।।
खगोल विज्ञान को वेद का नेत्र कहा गया क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टियों में होने वाले व्यवहार का निर्धारण काल से
होता है और काल का ज्ञान ग्रहीय गति से होता है। अतः खगोल विज्ञान वेदाङ्ग का हिस्सा रहा है। ऋग्वेद,
शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में नक्षत्र, चन्द्रमास, सौरमास, मलमास, ऋतु परिवर्तन, उत्तरायन, दक्षिणायन,
आकाशचक्र, सूर्य की महिमा, कल्प की माप, आदि के संदर्भ में अनेक उदाहरण मिलते हैं।
प्रकाश की गति :-
ऋग्वेद के प्रथम मंडल में दो ऋचाएं हैं —
मनो न योऽध्वनः सद्य एत्येकः सत्रा सूरो वस्व ईशे ।
– ऋग्वेद 1. 79. 9
अर्थात् —
मन की तरह शीघ्रगामी जो सूर्य स्वर्गीय पथ पर अकेले चले जाते हैं।
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥
– ऋग्वेद 1. 50 .9
अर्थात् हे सूर्य, तुम तीव्रगामी एवं सर्वसुन्दर तथा प्रकाश के दाता और जगत् को प्रकाशित करने वाले हो।
उपरोक्त श्लोक पर टिप्पणी /भाष्य करते हुए महर्षि सायणाचार्य ने निम्न श्लोक प्रस्तुत किया –
योजनानां सहस्त्रं द्वे द्वे शते द्वे च योजने।
एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते॥
-सायण ऋग्वेद भाष्य 1. 50 .4
अर्थात्—
आधे निमेष में 2202 योजन का मार्गक्रमण करने वाले प्रकाश तुम्हें नमस्कार है|
योजन एवं निमिष प्राचीन समय में क्रमशः दूरी और समय की इकाई हैं|उपर्युक्त श्लोक से हमें प्रकाश के आधे
निमिष में 2202 योजन चलने का पता चलता है अब समय की ईकाई निमिष तथा दूरी की ईकाई योजन को
आधुनिक ईकाइयों में परिवर्तित कर सकते है ।
1 योजन = 9 मील 160 गज
1 दिन रात में 810000 अर्ध निमेष
1 सेकेंड में 9.41 अर्ध निमेष
इस प्रकार 2202 × 9.11 = 20060.22 मील /अर्ध निमेष
20060. 22 × 9.41 = 188766.67 मील /सेकेंड
यह मान आधुनिक मान 186000 मील /सेकंड के लगभग बराबर है
गुरुत्वाकर्षण :-
गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत (Theory of Gravity)
मिथक:-
गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत (Theory of Gravity) की खोज का श्रेय सर आइजक न्यूटन (1666 AD) को
दिया है।
सत्यता:-
सर आइजक न्यूटन से लगभग हजारों वर्ष पूर्व ही पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (gravitational force) पर
कई ग्रन्थों रचना हो गई थी।
(1)
यह ऋग्वेद के मन्त्र हैं :-
यदा ते हर्य्यता हरी वावृधाते दिवेदिवे ।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे ।।
( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ३ )
अर्थात :-
सब लोकों का सूर्य्य के साथ आकर्षण और सूर्य्य आदि लोकों का परमेश्वर के साथ आकर्षण है । इन्द्र जो वायु ,
इसमें ईश्वर के रचे आकर्षण, प्रकाश और बल आदि बड़े गुण हैं । उनसे सब लोकों का दिन दिन और क्षण क्षण
के प्रति धारण, आकर्षण और प्रकाश होता है । इस हेतु से सब लोक अपनी अपनी कक्षा में चलते रहते हैं, इधर
उधर विचल भी नहीं सकते ।
यदा सूर्य्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः ।
आदित्ते विश्वा भुवनानी येमिरे ।।३।।
( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ५ )
अर्थात :- हे परमेश्वर ! जब उन सूर्य्यादि लोकों को आपने रचा और आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं
और आप अपने सामर्थ्य से उनका धारण कर रहे हैं , इसी कारण सूर्य्य और पृथिवी आदि लोकों और अपने
स्वरूप को धारण कर रहे हैं । इन सूर्य्य आदि लोकों का सब लोकों के साथ आकर्षण से धारण होता है इससे
यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर सब लोकों का आकर्षण और धारण कर रहा है
(2)
ऋषि पिप्पलाद ( लगभग ६००० वर्ष पूर्व ) ने प्रश्न उपनिषद् में कहा :-
पायूपस्थे – अपानम् ।
( प्रश्न उप० ३.४ )
पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्य० ।
( प्रश्न उप० ३.८ )
तथा पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता,
सैषा पुरुषस्य अपानवृत्तिम् आकृष्,
अपकर्षेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते ।
अन्यथा हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाशे वा उद्गच्छेत् ।
(शांकर भाष्य, प्रश्न० ३.८ )
अर्थात :- अपान वायु के द्वारा ही मल मूत्र नीचे आता है । पृथिवी अपने आकर्षण शक्ति के द्वारा ही मनुष्य को
रोके हुए है, अन्यथा वह आकाश में उड़ जाता ।
(3)
वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में कहा :-
पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः ।
खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।।
(पंच०पृ०३१ )
अर्थात :- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथिवी इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहा ।
(4)
महर्षि पतञ्जली (150 ई० पूर्व) व्याकरण महाभाष्य में भी गुरूत्वाकर्षण के सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए
लिखा :-
लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यक् गच्छति नोर्ध्वमारोहति ।
पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति आन्तर्यतः ।।
(महाभाष्य :- स्थानेन्तरतमः,१/१/४९ सूत्र पर )
अर्थात् :- पृथिवी की आकर्षण शक्ति इस प्रकार की है कि यदि मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका जाता है तो वह
बहुवेग को पूरा करने पर, न टेढ़ा जाता है और न ऊपर चढ़ता है । वह पृथिवी का विकार है, इसलिये पृथिवी
पर ही आ जाता है ।
(5)
आचार्य श्रीपति ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर में कहा है :-
उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेःस्थितिरन्तरिक्षे ।।
( सिद्धान्त० १५/२१ )
नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।
आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।। ( सिद्धान्त० १५/२२ )
अर्थात :- पृथिवी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी प्रकार स्वाभाविक है, जैसे सूर्य्य में गर्मी, चन्द्र में शीतलता और
वायु में गतिशीलता । दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहे का गोला स्थिर रहता है, उसी प्रकार पृथिवी भी अपनी
धुरी पर रुकी हुई है ।
(6)
भास्कराचार्य प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। इनका जन्म 1114 ई. में हुआ था।
भास्कराचार्य उज्जैन में स्थित वेधशाला के प्रमुख थे। यह वेधशाला प्राचीन भारत में गणित और खगोल शास्त्र
का अग्रणी केंद्र था। जब इन्होंने "सिद्धान्त शिरोमणि" नामक ग्रन्थ लिखा तब वें मात्र 36 वर्ष के थे।
"सिद्धान्त शिरोमणि" एक विशाल ग्रन्थ है।
जिसके चार भाग हैं
(1) लीलावती (2) बीजगणित (3) गोलाध्याय और (4) ग्रह गणिताध्याय।
लीलावती भास्कराचार्य की पुत्री का नाम था। अपनी पुत्री के नाम पर ही उन्होंने पुस्तक का नाम लीलावती
रखा। यह पुस्तक पिता-पुत्री संवाद के रूप में लिखी गयी है लीलावती में बड़े ही सरल (simple) और
काव्यात्मक (poetic) तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है।
भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है—
"आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं,
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति,
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।"
(~ सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय – भुवनकोश)
अर्थात्—
पृथ्वी में आकर्षण शक्ति ( Attractions force of the earth) है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी
पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान
ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों
की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।
सुझाव:-
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम को भास्कराचार्य गुरुत्वाकर्षण नियम कहना उचित होगा, यह वैज्ञानिक
सत्यनिष्ठा का परिचायक होगा।
विभिन्ना ग्रहों की दूरी :-
हमारे सौरमंडल में 8 ग्रह है, आर्यभट्ट ने सूर्य से विभिन्न ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आज के माप के
काफी मिलता जुलता है। आज के माप के अनुसार पृथ्वी से सूर्य के बीच की दूरी 15 करोड़ किमी. है इसे
खगोलीय इकाई (Astronomical Unit / A U) कहा जाता है।
ग्रह आर्यभट्ट के मान वर्तमान मान
बुध 0.375 AU 0.387 AU
शुक्र 0.725 AU 0.723 AU
मंगल 1.538 AU 1.523 AU
गुरु 5.16 AU 5.20 AU
शनि 9.41 AU 9.54 AU
सूर्योदय – सूर्यास्त :-
पृथ्वी गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांकित होने के कारण अलग अलग स्थानों में अलग अलग
समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था, वे लिखते हैं —
उदयो यो लंकायां सोस्तमयः सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक विषयेऽर्धरात्रः स्यात् ।।
– आर्यभटीय गोलपाद – 13
अर्थात् —
जब लंका में सूर्योदय होता है, तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। तब यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक
प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
इस प्रकार इस संक्षिप्त अवलोकन से हम कह सकते हैं कि काल गणना और खगोल विज्ञान की भारत में
उज्ज्वल परंपरा रही है। पिछले कुछ सदियों में यह धारा कुछ अवरुद्ध सी हो गई थी। आज पुनः उसे आगे
बढ़ाने की प्रेरणा पूर्वकाल के आचार्य आज की पीढ़ी को दे रहे हैं।
विनियोग (Case-Study)
नई दिल्ली में महरौली में चौथी शताब्दी में निर्मित लौह स्तंभ लगभग 1600 वर्षों से सभी मौसमों का
सामना करते हुए अविचल खड़ा है। चंद्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान् विष्णु के मंदिर
के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने के लिए इसे बनाया गया
होगा, अतः इसे गरुड़स्तंभ भी कहते हैं। 1050 ई. में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा लाया
गया। इस स्तंभ की ऊंचाई 735.5 सेमी है, इसमें से 50 सेमी. नीचे है 45 सेमी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफॉर्म
है, इस स्तंभ का घेरा 41.6 सेमी. नीचे है तथा 30.4 सेमी. उपर है। स्तंभ का कुल वजन 6096 किग्रा. है।
प्रश्न :-
(1) दिल्ली के महरौली में स्थित प्रसिद्ध लौह स्तंभ की विशेषता का वर्णन करें।
(2) महरौली के लौह स्तंभ से जुड़ी और कोई जानकारी आप लिखने की कोशिश करें।
(3) महरौली के लौह स्तंभ के समकालिक अन्य धातुओं के उत्कृष्टता का वर्णन कीजिए।
संदर्भ-ग्रंथ-सूची (Bibliography)
(1) भास्कराचार्य – गुणाकर मुले – ज्ञान विज्ञान प्रकाशन, नई दिल्ली
(2) आर्यभट्ट – गुणाकर मुले – ज्ञान विज्ञान प्रकाशन, नई दिल्ली
(3) वैशेषिक दर्शन – एक अध्ययन – श्री नारायण मिश्रा – चौखम्बा संस्कृत सीरीज – वाराणसी – 1968
(4) महाभारत (शांतिपर्व) – महर्षि वेद व्यास – गीता प्रेस, गोरखपुर
(5) आर्यभटीय, रामनिवास राय – इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी – नई दिल्ली – 1976
(6) प्रज्ञा-प्रवाह डॉ. मुरली मनोहर जोशी – पराग प्रकाशन – दिल्ली – 1991
(7) भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा – सुरेश सोनी – अर्चना प्रकाशन – भोपाल – 2003
(8) मानस-गणित facebook page, ManasGanit.blogspot.co.in, www.manasganit.com
भारतीय विज्ञान परंपरा ( Bhartiya Vidya Saar,Bhartiya Vigyan Parampara)
http://www.manasganit.com/Post/details/38–bhartiya-vidya-saar-bhartiya-vigyan